Part-01-Sinhasan Battisi in Hindi Children Stories by MB (Official) books and stories PDF | भाग-१ - सिंहासन बत्तीसी

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

भाग-१ - सिंहासन बत्तीसी

सिंहासन बत्तीसी

कौन थीं 32 पुतलियां

भाग — 01


© COPYRIGHTS


This book is copyrighted content of the concerned author as well as NicheTech / Hindi Pride.


Hindi Pride / NicheTech has exclusive digital publishing rights of this book.


Any illegal copies in physical or digital format are strictly prohibited.


NicheTech / Hindi Pride can challenge such illegal distribution / copies / usage in court.

सिंहासन बत्तीसी

पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी

दूसरी पुतली चित्रलेखा की कहानी

तीसरी पुतली चंद्रकला की कहानी

चौथी पुतली कामकंदला की कहानी

कौन थीं 32 पुतलियां

प्राचीन समय की बात है। उज्जैन में राजा भोज राज्य करते थे। वह बड़े दानी और धर्मात्मा थे। उनके बारे में प्रसिद्ध था कि वह ऐसा न्याय करते कि दूध और पानी अलग—अलग हो जाए। नगरी में एक किसान का एक खेत था। जिसमें उसने कई साग—सब्जी लगा रखी थी।

एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। पूरी जमीन पर तो खूब तरकारियां आईं, लेकिन खेत के बीचों—बीच थोड़ी—सी जमीन खाली रह गई। हालांकि किसान ने उस जमीन पर भी बीज डाले थे। लेकिन वहां कुछ नहीं उगा।

किसान ने वहां खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। जब भी किसान मचान पर चढ़ता अपने आप चिल्लाने लगता— श्कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओ और सजा दो। मेरा राज्य उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।'

सारी नगरी में यह बात आग की तरह फैल गई और राजा भोज के कानों में पहुंची। राजा ने कहा, श्मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।'

राजा भोज जब उस जगह पहुंचे तो उन्होंने भी वही देखा कि किसान मचान पर खड़ा है और कह रहा है— श्राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज्य उससे ले लो।

यह सुनकर राजा चिंतित हो गए। चुपचाप महल में लौटा आए। उन्हें रातभर नींद नहीं आई। सवेरा होते ही उन्होंने राज्य के ज्योतिषियों और जानकार पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने अ पनी गोपनीय विद्या से पता लगाया कि उस मचान के नीचे कुछ छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाए।

खोदते—खोदते जब काफी मिट्टी निकल गई तो अचानक एक सिंहासन प्रकट हुआ। सिंहासन के चारों ओर आठ—आठ पुतलियां यानी कुल बत्तीस पुतलियां खड़ी थीं। सबके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो सिंहासन को बाहर निकालने को कहा, लेकिन कई मजदूरों के जोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस—से मस न हुआ।

तब एक पंडित ने कहा कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि राजा स्वयं इसकी पूजा—अर्चना न करें।

राजा ने ऐसा ही किया। पूजा—अर्चना करते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़े खुश हुए।

सिहांसन में कई तरह के रत्न जड़े थे जिनकी चमक अनूठी थी। सिंहासन के चारों ओर 32 पुतलियां बनी थी। उनके हाथ में कमल का एक—एक फूल था। राजा ने हुक्म दिया कि खजाने से रुपया लेकर सिहांसन दुरुस्त करवाएं।

सिंहासन सुंदर होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन दमक उठा था। जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियां ऐसी लगती मानो अभी बोल उठेंगीं।

राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा, श्आप लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालें। उस दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा।' दिन तय किया गया। दूर—दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गए। तरह—तरह के बाजे बजने लगे, महल में खुशियां मनाई जाने लगी।

पूजा के बाद जैसे ही राजा ने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सारी पुतलियां खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि यह बेजान पुतलियां कैसे हंस पड़ी।

राजा ने अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से पूछा , श्ओ सुंदर पुतलियों! सच—सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?'

पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। राजा की बात सुनकर वह बोली, श्राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन इन सब बातों का आपको घमंड भी है। जिस राजा का यह सिहांसन है, वह दानी, वीर और धनी होते हुए भी विनम्र थे। परम दयालु थे।

राजा बड़े नाराज हुए।

पुतली ने समझाया, महाराज, यह सिंहासन परम प्रतापी और ज्ञानी राजा विक्रमादित्य का है।

राजा बोले, मैं कैसे मानूं कि राजा विक्रमादित्य मुझसे ज्यादा गुणी और पराक्रमी थे?

पुतली ने कहा, श्ठीक है, मैं तुम्हें राजा विक्रमादित्य की एक कहानी सुनाती हूं।' सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली रत्नमंजरी ने सुनाई एक कहानी —

अंबावती में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राह्मणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।

पहली पुतली रत्नमंजरी की कहानी

अंबावती में एक राजा राज्य करता था। वह बड़ा दानी था। उसी राज्य में धर्मसेन नाम का एक और बड़ा राजा हुआ। उसकी चार रानियां थी। एक थी ब्राह्मण, दूसरी क्षत्रिय, तीसरी वैश्य और चौथी शूद्र। ब्राह्मणी से एक पुत्र हुआ, जिसका नाम ब्राह्मणीत रखा गया। क्षत्राणी से तीन बेटे हुए। एक का नाम शंख, दूसरे का नाम विक्रमादित्य और तीसरे का भर्तृहरि रखा गया। वैश्य से एक लड़का हुआ, जिसका नाम चंद्र रखा गया। शूद्राणी से धन्वन्तारि हुए।

जब वे लड़के बड़े हुए तो ब्राह्मणी का बेटा घर से निकल पड़ा और धारापुर आया। हे राजन्! वहां के राजा तुम्हारे पिता थे। उस लड़के ने राजा को मार डाला और राज्य अपने हाथ में ले करके उज्जैन पहुंचा। संयोग की बात है कि उज्जैन में आते ही वह मर गया। उसके मरने पर क्षत्राणी का बेटा शंख गद्दी पर बैठा। कुछ समय बाद विक्रमादित्य गद्दी पर बैठें।

एक दिन राजा विक्रमादित्य को राजा बाहुबल के बारे में पता चला कि जिस गद्दी पर वह बैठे हैं वह राजा बहाहुबल की कृपा से है। पंडितों ने सलाह दी कि हे राजन्! आपको जग जानता है, लेकिन जब तक राजा बाहुबल आपका राजतिलक नहीं करेगें, तब तक आपका राज्य अचल नहीं होगा। आप उनसे राजतिलक करवाओ।

विक्रमादित्य ने कहा, श्अच्छा।' और वह अपने ज्ञानी और विश्वसनीय साथी लूतवरण को साथ लेकर वहां गए। बाहुबल ने बड़े आदर से उसका स्वागत किया। पांच दिन बीत गए। लूतवरण ने विक्रमादित्य को सलाह दी कि, श्जब आप विदा लेगें तब राजा बाहुबल आपसे कुछ मांगने को कहेगें।

राजा के घर में एक सिंहासन हैं, जिसे साक्षात महादेव ने राजा इन्द्र को दिया था। और बाद में इन्द्र ने बाहुबल को दिया। उस सिंहासन में यह गुण है कि जो उस पर बैठेगा। वह सात द्वीप नवखंड पृथ्वी पर राज करेगा। उसमें बहुत—से जवाहरात जड़े हैं। उसमें सांचे में ढालकर बत्तीस पुतलियां लगाई गई है। हे राजन्! तुम उसी सिंहासन को मांग लेना।'

अगले दिन जब विक्रमादित्य विदा लेने गए तो उसने वही सिंहासन मांग लिया। राजा बाहुबल वचन से बंधे थे। बाहुबल ने विक्रमादित्य को उस पर बिठाकर राजतिलक किया और बड़े प्रेम से विदा किया।

राजा विक्रमादित्य ने लौटते ही सभा की और पंडितों को बुलाकर कहा, श्मैं एक अनुष्ठान करना चाहता हूं। आप देखकर बताएं कि मैं इसके योग्य हूं या नहीं।'

पंडितों ने कहा, श्आपका प्रताप तीनों लोकों में छाया हुआ है। आपका कोई बैरी नहीं। जो करना हो, कीजिए।'

अपने खानदान के सब लोगों को बुलाइए, सवा लाख कन्या दान और सवा लाख गायें दान कीजिए, ब्राह्मणों को धन दीजिए, जमींदारों का एक साल का लगान माफ कर दीजिए।'

इतना कहकर पुतली रत्नमंजरी बोली, श्हे राजन्! आपने अगर कभी ऐसा दान किया है तो सिंहासन पर अवश्य बैठें।' पुतली की बात सुनकर राजा भोज निराश हो गए— श्आज का दिन तो गया। अब तैयारी करो, कल सिंहासन पर बैठेंगे।'

इस तरह सिंहासन बत्तीसी की पहली पुतली ने राजा भोज को नहीं बैठने दिया और अगले दिन दूसरी पुतली चित्रलेखा ने सुनाई राजा विक्रमादित्य की कहानी।

दूसरी पुतली चित्रलेखा की कहानी

अगले दिन जैसे ही राजा भोज ने सिंहासन पर बैठना चाहा तो दूसरी पुतली बोली— जो राजा विक्रमादित्य जैसा गुणी हो, पराक्रमी हो, यशस्वी हो वही बैठ सकता है इस सिंहासन पर।

राजा ने पूछा, श्विक्रमादित्य में क्या गुण थे?'

पुतली चित्रलेखा ने कहा, श्सुनो।'

एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा योग साधने की हुई। अपना राजपाट अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर अंग में भभूत लगाकर जंगल में चले गए।

उसी जंगल में एक ब्राह्मण तपस्या कर रहा था। देवताओं ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को एक फल दिया और कहा, श्जो इसे खा लेगा, वह अमर हो जाएगा। श्ब्राह्मण ने वह फल को अपनी पत्नी को दे दिया। पत्नी ने उससे कहा, श्इसे राजा को दे आओ और बदले में कुछ धन ले आओ।'

ब्राह्मण ने जाकर वह फल राजा को दे दिया। राजा अपनी रानी को बहुत प्यार करता था। उसने वह फल अपनी रानी का दे दिया। रानी का प्रेम शहर के कोतवाल से था। रानी ने वह फल उसे दे दिया।

कोतवाल एक वेश्या के पास जाया करता था। उसने वह फल वेश्या को दे दिया। वेश्या ने सोचा कि, श्मैं अमर हो जाऊंगी तो भी पाप कर्म करती रहूंगी। अच्छा होगा कि यह फल राजा को दे दूं। वह जिएगें तो लाखों का भला करेगें।' यह सोचकर उसने दरबार में जाकर वह फल राजा को दे दिया।

फल को देखकर राजा चकित रह गए। उन्हें सारा भेद मालूम हुआ तो बड़ा दुख हुआ। उसे दुनिया बेकार लगने लगी। एक दिन वह बिना किसी से कहे—सुने राजघाट छोड़कर घर से निकल गए।

राजा इंद्र को यह मालूम हुआ तो उन्होंने राज्य की रखवाली के लिए एक दूत भेज दिया।

इधर जब राजा विक्रमादित्य की योग—साधना पूरी हुई तो वह लौटे। दूत ने उन्हें रोका। विक्रमादित्य ने उससे पूछा तो उसने सब हाल बता दिया।

विक्रमादित्य ने अपना नाम बताया, फिर भी दूत ने उन्हें न जाने दिया। बोला, श्तुम विक्रमादित्य हो तो पहले मुझसे लड़ो।'

दोनों में लड़ाई हुई। विक्रमादित्य ने उसे पछाड़ दिया।

दूत बोला, श्मुझे छोड़ दो। मैं किसी दिन आपके काम आऊंगा।'

इतना कहकर पुतली बोली, श्राजन्!

क्या आप में इतना पराक्रम है कि इन्द्र के दूत को हरा कर अपना गुलाम बना सको?

इस प्रकार दूसरा दिन भी यूं ही निकल गया।

तीसरे दिन तीसरी पुतली चंद्रकला ने सुनाई नई कहानी।

तीसरी पुतली चंद्रकला की कहानी

तीसरे दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को हुआ तो चंद्रकला नाम की तीसरी पुतली ने उसे रोककर कहा, श्हे राजन्! यह क्या करते हो? पहले विक्रमादित्य जैसे काम करों, तब सिंहासन पर बैठना!श्

राजा ने पूछा, श्विक्रमादित्य ने कैसे काम किए थे?'

पुतली बोली, श्लो, सुनो।'

तीसरी पुतली चन्द्रकला ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है —

एक बार पुरुषार्थ और भाग्य में इस बात पर ठन गई कि कौन बड़ा है? पुरुषार्थ कहता कि बगैर मेहनत के कुछ भी संभव नहीं है जबकि भाग्य का मानना था कि जिसको जो भी मिलता है भाग्य से मिलता है। परिश्रम की कोई भूमिका नहीं होती है। उनके विवाद ने ऐसा उग्र रूप ग्रहण कर लिया कि दोनों को देवराज इन्द्र के पास जाना पड़ा।

झगड़ा बहुत ही पेचीदा था इसलिए इन्द्र भी चकरा गए। पुरुषार्थ को वे नहीं मानते जिन्हें भाग्य से ही सब कुछ प्राप्त हो चुका था। दूसरी तरफ अगर भाग्य को बड़ा बताते तो पुरुषार्थ उनका उदाहरण प्रस्तुत करता जिन्होंने मेहनत से सब कुछ अर्जित किया था।

इन्द्र असमंजस में पड़ गए और किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचे। काफी सोचने के बाद उन्हें विक्रमादित्य की याद आई। उन्हें लगा सारे विश्व में इस झगड़े का समाधान सिर्फ वही कर सकते हैं।

उन्होंने पुरुषार्थ और भाग्य को विक्रमादित्य के पास जाने के लिए कहा। पुरुषार्थ और भाग्य मानव वेष में विक्रमादित्य के पास चल पड़े। विक्रमादित्य को भी झगड़े का तुरंत कोई समाधान नहीं सूझा। उन्होंने दोनों से छरू महीने बाद आने को कहा।

जब वे चले गए तो विक्रमादित्य ने काफी सोचा। समाधान के लिए वे सामान्य जनता के बीच वेष बदलकर घूमने लगे। काफी घूमने के बाद भी जब कोई संतोषजनक हल नहीं खोज पाए तो दूसरे राज्यों में भी घूमने का निर्णय किया।

काफी भटकने के बाद भी जब कोई समाधान नहीं निकला तो उन्होंने एक व्यापारी के यहां नौकरी कर ली। व्यापारी ने उन्हें नौकरी उनके यह कहने पर दी कि जो काम दूसरे नहीं कर सकते हैं वे कर देंगे।

कुछ दिनों बाद वह व्यापारी जहाज पर अपना माल लादकर दूसरे देशों में व्यापार करने के लिए समुद्री रास्ते से चल पड़ा। अन्य नौकरों के अलावा उसके साथ विक्रमादित्य भी थे। जहाज कुछ ही दूर गया होगा कि भयानक तूफान आ गया। जहाज पर सवार लोगों में भय और हताशा की लहर दौड़ गई। किसी तरह जहाज एक टापू के पास आया और वहां लंगर डाल दिया गया। जब तूफान समाप्त हुआ तो लंगर उठाया जाने लगा। मगर लंगर किसी के उठाए न उठा।

अब व्यापारी को याद आया कि विक्रमादित्य ने यह कहकर नौकरी ली थी कि जो कोई न कर सकेगा वे कर देंगे। उसने विक्रम से लंगर उठाने को कहा। लंगर उनसे आसानी से उठ गया। लंगर उठते ही जहाज तेज गति से बढ़ गया लेकिन टापू पर विक्रमादित्य छूट गए।

उनकी समझ में नहीं आया क्या किया जाए। द्वीप पर घूमने—फिरने चल पड़े। नगर के द्वार पर एक पट्टिका टंगी थी, जिस पर लिखा था कि वहां की राजकुमारी का विवाह पराक्रमी विक्रमादित्य से ही होगा। वे चलते—चलते महल तक पहुंचे।

राजकुमारी उनका परिचय पाकर खुश हुई और दोनों का विवाह हो गया। कुछ समय बाद वे कुछ सेवकों को साथ ले अपने राज्य की ओर चल पड़े। रास्ते में विश्राम के लिए जहां डेरा डाला वहीं एक संन्यासी से उनकी भेंट हुई। संन्यासी ने उन्हें एक माला और एक छड़ी दी।

उस माला की दो विशेषताएं थीं— उसे पहनने वाला अदृश्य होकर सब कुछ देख सकता था तथा गले में माला रहने पर उसका हर कार्य सिद्ध हो जाता। छड़ी से उसका मालिक सोने के पूर्व कोई भी आभूषण मांग सकता था।

संन्यासी को धन्यवाद देकर विक्रमादित्य अपने राज्य लौटे। एक उद्यान में ठहरकर संग आए सेवकों को वापस भेज दिया तथा अपनी पत्नी को संदेश भिजवाया कि शीघ्र ही वे उसे अपने राज्य बुलवा लेंगे।

उद्यान में ही उनकी भेंट एक ब्राह्मण और एक भाट से हुई। वे दोनों काफी समय से उस उद्यान की देखभाल कर रहे थे। उन्हें आशा थी कि उनके राजा कभी उनकी सुध लेंगे तथा उनकी विपन्नता को दूर करेंगे। विक्रमादित्य पसीज गए।

उन्होंने संन्यासी वाली माला भाट को तथा छड़ी ब्राह्मण को दे दी। ऐसी अमूल्य चीजें पाकर दोनों धन्य हुए और विक्रम का गुणगान करते हुए चले गए।

विक्रम राज दरबार में पहुंचकर अपने कार्य में संलग्न हो गए। छरू मास की अवधि पूरी हुई, तो पुरुषार्थ तथा भाग्य अपने फैसले के लिए उनके पास आए।

विक्रमादित्य ने फैस ला दिया कि कि भाग्य और पुरुषार्थ एक—दूसरे के पूरक हैं। उन्हें छड़ी और माला का उदाहरण याद आया। जो छड़ी और माला उन्हें भाग्य से संन्यासी से प्राप्त हुई थीं। उन्हें ब्राह्मण और भाट ने पुरुषार्थ से प्राप्त किया। पुरुषार्थ और भाग्य पूरी तरह संतुष्ट होकर वहां से चले गए।

कहानी सुनाकर पुतली बोली— बोलो राजा, क्या आप में है ऐसा न्यायप्रिय फैसला देने की दक्षता और अमूल्य वस्तुएं दान में देने का ह्रदय और सामर्थ्‌य?

राजा फिर सोच में पड़ गए और तीसरे दिन भी सिंहासन पर नहीं बैठ सके। चौथे दिन चौथी पुतली कामकंदला ने सुनाई विक्रमादित्य की दानवीरता की कथा।

चौथी पुतली कामकंदला की कहानी

चौथे दिन जैसे ही राजा सिंहासन पर चढ़ने को उद्यत हुए पुतली कामकंदला बोल पड़ी, रूकिए राजन, आप इस सिंहासन पर कैसे बैठ सकते हैं? यह सिंहासन दानवीर राजा विक्रमादित्य का है। क्या आप में है उनकी तरह विशेष गुण और

त्याग की भावना?

राजा ने कहा— हे सुंदरी, तुम भी विक्रमादित्य की ऐसी कथा सुनाओ जिससे उनकी विलक्षणता का पता चले।

पुतली बोली, सुनो राजन, एक दिन राजा विक्रमादित्य दरबार को संबोधित कर रहे थे, तभी किसी ने सूचना दी कि एक ब्राह्मण उनसे मिलना चाहता है। विक्रमादित्य ने कहा कि ब्राह्मण को अंदर लाया जाए। विक्रमादित्य ने उसके आने का प्रयोजन पूछा।

ब्राह्मण ने कहा कि वह किसी दान की इच्छा से नहीं आया है, बल्कि उन्हें कुछ बताने आया है। उसने बताया कि मानसरोवर में सूर्योदय होते ही एक खंभा प्रकट होता है जो सूर्य का प्रकाश ज्यों—ज्यों फैलता है ऊपर उठता चला जाता है और जब सूर्य की गर्मी अपनी पराकाष्ठा पर होती है तो वह साक्षात सूर्य को स्पर्श करता है। ज्यों—ज्यों सूर्य की गर्मी घटती है, छोटा होता जाता है तथा सूर्यास्त होते ही जल में विलीन हो जाता है।

विक्रमादित्य के मन में जिज्ञासा हुई कि आखिर वह कौन है। ब्राह्मण ने बताया कि वह भगवान इन्द्र का दूत बनकर आया है। देवराज इन्द्र का आपके प्रति जो विश्वास है आपको उसकी रक्षा करनी होगी।

आगे उसने कहा कि सूर्य देवता को घमंड है कि समुद्र देवता को छोड़कर पूरे ब्रह्मांड में कोई भी उनकी गर्मी को सहन नहीं कर सकता। देवराज इन्द्र उनकी इस बात से सहमत नहीं हैं। उनका मानना है कि उनकी अनुकम्पा प्राप्त मृत्युलोक का एक राजा सूर्य की गर्मी की परवाह न करके उनके निकट जा सकता है। वह राजा आप हैं।

राजा विक्रमादित्य को अब सारी बात समझ में आ गई। उन्होंने सोच लिया कि प्राणोत्सर्ग करके भी सूर्य भगवान को समीप से जाकर नमस्कार करेंगे तथा देवराज के उनके प्रति विश्वास की रक्षा करेंगे।

उन्होंने ब्राह्मण को समुचित दान—दक्षिणा देकर विदा किया तथा अपनी योजना को कार्य—रूप देने का उपाय सोचने लगे। भोर होने पर दूसरे दिन वे अपना राज्य छोड़कर चल पड़े। एकांत में उन्होंने मां काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया। दोनों बेताल तत्क्षण उपस्थित हो गए।

विक्रम को दोनों बेताल ने बताया कि उन्हें उस खंभे के बारे में सब कुछ पता है। दोनों बेताल उन्हें मानसरोवर के तट पर लाए। रात उन्होंने हरियाली से भरी जगह पर काटी और भोर होते ही उस जगह पर नजर टिका दी, जहां से खंभा प्रकट होता। सूर्य की किरणों ने जैसे ही मानसरोवर के जल को छुआ, एक खंभा प्रकट हुआ।

विक्रमादित्य तुरंत तैरकर उस खंभे तक पहुंचे। खंभे पर जैसे विक्रमादित्य चढ़े जल में हलचल हुई और लहरें उठकर विक्रम के पैर छूने लगीं। ज्यों—ज्यों सूर्य की गर्मी बढी़, खंभा बढ़ता रहा। दोपहर आते—आते खंभा सूर्य के बिल्कुल करीब आ गया। तब तक विक्रम का शरीर जलकर बिलकुल राख हो गया था। सूर्य भगवान ने जब खंभे पर एक मानव को जला हुआ पाया, तो उन्हें समझते देर नहीं लगी कि विक्रम को छोड़कर कोई दूसरा नहीं होगा। उन्होंने भगवान इन्द्र के दावे को बिल्कुल सच पाया।

उन्होंने अमृत की बूंदों से विक्रम को जीवित किया तथा अपने स्वर्णकुंडल उतारकर भेंट कर दिए। उन कुंडलों की यह विशेषता थी कि कोई भी इच्छित वस्तु वे कभी भी प्रदान कर देते। सूर्य देव ने अपना रथ अस्ताचल की दिशा में बढ़ाया तो खंभा घटने लगा।

सूर्यास्त होते ही खंभा पूरी तरह घट गया और विक्रम जल पर तैरने लगे। तैरकर सरोवर के किनारे आए और दोनों बेतालों का स्मरण किया। बेताल उन्हें फिर उसी जगह लाए जहां से उन्हें सरोवर ले गए थे।

विक्रम पैदल अपने महल की दिशा में चल पड़े। कुछ ही दूर पर एक ब्राह्मण मिला जिसने बातों—बातों में कुण्डल मांग लिए। विक्रम ने बिना एक पलकी देरी किए बेहिचक उसे दोनों कुंडल दे दिए।

पुतली बोली— बोलो राजन, क्या तुम में है वह पराक्रम कि सूर्य के नजदीक जाने की हिम्मत कर सको? और अगर चले जाओ तो देवों के देव सूर्यदेव के स्वर्णकुंडल किसी साधारण ब्राह्मण को दे सको? अगर हां तो इस सिंहासन पर तुम्हारा स्वागत है।

राजा पेशोपेश में पड़ गया और इस तरह चौथा दिन भी चला गया। पांचवे दिन पांचवी पुतली लीलावती ने सुनाई विक्रमादित्य के शौर्य की गाथा।